Monday, January 19, 2015

एक गलत राह

चारों ओर अँधेरा है,
डाला इसने डेरा है,
जाऊं अब किस ओर मैं,
शंका ने मन घेरा है । 

चाह रोशनी की मुझको ,
दिखती नहीं कहीं मगर,
निरत प्रयास करे है मन,
मिलती नहीं कोई डगर । 

करूँ मैं क्या यह सोचता,
निकलूं कैसे जाल से,
जितना करूँ प्रयास अब,
उतना ही ये कसे मुझे । 

उलझन के इस घेर में,
फसता ही जाये ये मन,
एक रास्ता चुना गलत,
चुनता गया गलत हर पल । 

यह राह ले गयी मुझे वहां,
जहाँ पहुँच खो दिया है सब कुछ,
सोचा था दुनिया होगी मेरी,
पर मिला मुझे एकाकी दुःख । 

मन में आया फिर यह विचार,
सोचा कि पीछे मुड़ जाऊं,
देखा पीछे तो कुछ न मिला,
अब जाऊं तो में कहाँ जाऊं । 

मन में फिर उठे सवाल कई,
मैं नहीं अकेला आया था,
थे कई लोग यहाँ साथ मेरे,
जिन्होंने मुझको उकसाया था । 

गए लोग कहाँ सोचा मैंने,
व्याकुल होकर दी एक पुकार,
बस गूँज सुनाई दी मुझको,
था छोड़ गया मुझको संसार । 

सीख मिली अब यह मुझको,
न करो गलत कभी जीवन में,
पर देर हो गयी है अब तो ,
फस गया हूँ उजड़े उपवन में। 

किरण दिखाई दे कोई,
या मिल जाए कोई लौ ही अब,
कुछ तो हो जिससे दिख जाए,
आया था जिससे रास्ता वह । 

पर बहुत देर हो चुकी है अब,
यह जानता हूँ मन ही मन में,
जो आता है यहाँ जाता नहीं,
गुम जाता है इस दलदल में।

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