क्यों जीते हो मरते मरते,
और नित नित शीश झुकाते हो,
नहीं लगे तुम्हारा मन फिर भी,
तुम कुछ भी करते जाते हो,
सोचते हो कि अच्छा होगा,
आने वाला कोई पल यूं ही,
कुछ भी ना अलग तुम करते हो,
बदलेगा जीवन क्यों ही,
जीवन हैं तुम्हारा पत्तों सा,
जो गिरा टूटकर डाली से,
नही जानते हो जाओगे कहां,
बस पड़े हुये हो खाली से,
जो बनना है तो बीज बनो,
खुद की तकदीर लिखो खुद से,
सीना है चीरो भूमि का,
तभी फूटेगा जीवन तुमसे,
सुनना ना कभी तुम औरों की,
वो देंगे तुम्हे निराशा ही,
जो बदलते हैं इस दुनिया को,
वो सुनते हैं बस निज मन की।
Saturday, November 18, 2017
वो सुनते हैं बस निज मन की
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